कर्म: जो बोओगे वही काटोगे
-सौ. भक्ति सौरभ खानवलकर
-कोलंबिया, साउथ कैरोलिना, यू.एस.ए.
कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन।
मां कर्मफलहेतुर्भूः मांते संङगोस्त्वकर्माणि।।
श्रीमद् भगवत गीता के इस श्लोक का अर्थ है- मनुष्य को सिर्फ कर्म करने का अधिकार है, कर्म का फल देने का अधिकार भगवान का है। कर्म-फल की इच्छा से कभी काम मत करो और ना ही कर्म ना करने की आपकी प्रवृत्ति होनी चाहिए।
दोस्तों, कर्म क्या है? मनुष्य द्वारा किए गए कर्मों का परिणाम किस प्रकार निर्धारित किया जाता है? इसी प्रकार के कई प्रश्न मनुष्य के मन में उठते हैं। वैसे कर्म एक विस्तृत विषय है और यदि इस पर चर्चा की जाए तो वह अनंत है। इसे समझना व जाना इतना आसान नहीं है। सामान्यतः कर्म के बारे में व्यक्ति यही जानता है कि यह दो प्रकार के होते हैं - अच्छे और बुरे। जिस तरह के कर्म व्यक्ति अपने जीवन में करेगा उसे उसी के अनुरूप परिणाम मिलेगा। जब व्यक्ति खेत में बीज बोता है तो फसल की गुणवत्ता धरती की उर्वरता पर निर्भर करती है। ऐसे ही मनुष्य का प्रत्येक कर्म चाहे वह कितना ही छोटा क्यों ना हो फलीभूत होने की क्षमता रखता है और इसका फल इस पर निर्भर करता है कि वह कर्म अच्छा है या बुरा। कर्मों के नियम में भी यह बात कही है कि जैसा आप बोओगे वैसा ही काटोगे। कहते हैं व्यक्ति इस संसार में अकेला एवं खाली हाथ जन्म लेता है और वैसा ही वह मृत्यु को प्राप्त होता है। परंतु यह मिथ्या है। वह इस संसार में खाली हाथ तो अवश्य आता है लेकिन अपने किए गए कर्मों को साथ लेकर जाता है।
नीचे लिखी हुई कहानी के माध्यम से कर्म क्या है, आइए जानने की कोशिश करते हैं। एक व्यक्ति था। उसके तीन मित्र थे। एक मित्र ऐसा था जो सदैव साथ रहता था। एक पल, एक क्षण भी बिछड़ता नहीं था। दूसरा मित्र ऐसा था, जो सिर्फ सुबह शाम मिलता था। और तीसरा मित्र ऐसा था, जो बहुत दिनों में कभी-कभी मिल जाता था। एक दिन उस व्यक्ति को किसी कारणवश अदालत जाना था और किसी को अपने साथ गवाह बनाकर ले जाना था। अब व्यक्ति सबसे पहले अपने उस मित्र के पास गया जो सदैव उसका साथ देता था और बोला, "मित्र क्या तुम मेरे साथ अदालत में गवाह बनकर चल सकते हो?" वह मित्र बोला, "माफ़ करो दोस्त। मुझे तो आज फुर्सत नहीं।" उस व्यक्ति ने सोचा कि 'यह मित्र मेरा हमेशा साथ देता था पर आज मुसीबत के समय इसने मेरा साथ देने से इनकार क्यों कर दिया? अब दूसरे मित्र से मुझे क्या आशा है?' फिर भी हिम्मत रख कर दूसरे मित्र के पास गया जो सुबह-शाम मिलता था और अपनी समस्या सुनाई। दूसरे मित्र ने कहा, "मेरी एक शर्त है कि मैं सिर्फ अदालत के दरवाज़े के पास तक आऊंगा अंदर तक नहीं।"
वह बोला,
"बाहर के लिए तो मैं ही बहुत हूं। मुझे तो अंदर के लिए गवाह चाहिए।" फिर वह थक हार कर अपने तीसरे मित्र के पास गया जो बहुत दिनों में मिलता था और अपनी समस्या सुनाई। तीसरा मित्र उसकी समस्या सुनकर तुरंत उसके साथ चल दिया। अब आप सोच रहे होंगे कि वह तीन मित्र कौन हैं? तो चलिए इस कथा का सार जानते हैं। जैसे कहानी में तीन मित्रों की बातों का वर्णन है, उसी प्रकार हर व्यक्ति के तीन मित्र होते हैं। सबसे पहला मित्र है - व्यक्ति का 'शरीर', व्यक्ति जहां भी जाएंगा शरीर रूपी पहला मित्र हमेशा उसके साथ रहेगा। हर पल, हर क्षण वह कभी उससे दूर नहीं होगा। दूसरा मित्र है - शरीर के 'संबंधी' जैसे माता-पिता, भाई-बहन, मित्र, परिचित इत्यादि, जिनके साथ व्यक्ति रहता हैं। जो सुबह, दोपहर, शाम मिलते हैं। तथा तीसरा मित्र है - 'कर्म', जो सदैव व्यक्ति की आत्मा के साथ जाता है। ज़रा सोचिए, आत्मा जब शरीर छोड़कर धर्मराज की अदालत में जाती है, उस समय शरीर रूपी पहला मित्र एक कदम भी आगे चलकर साथ नहीं देता। जैसा कि उस पहले मित्र ने साथ नहीं दिया। दूसरा मित्र यानी कि संबंधी जो अदालत के दरवाज़े तक साथ आते हैं और वहां से वापस लौट जाते हैं। तीसरा मित्र, व्यक्ति के कर्म जो सदा ही साथ जाते हैं चाहे अच्छे हों या बुरे, कर्म सदा व्यक्ति के साथ चलते हैं।
व्यक्ति अच्छा और बुरा दोनों ही सोचता है पर जिसका स्मरण वह ज्यादा करता है, वैसी ही उसकी प्रवृत्ति हो जाती है। प्रवृत्ति धीरे-धीरे स्वभाव व स्वभाव से आचरण और फिर आचरण से जीवन में आने लगती है और फिर व्यक्ति वैसा ही हो जाता है जैसा वह सोचता है और व्यक्ति की अच्छी और बुरी सोच ही उसे अच्छे या बुरे कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। आपको दूसरे व्यक्ति क्या बोलते हैं, आपके बारे में क्या सोचते हैं, आपके लिए क्या करते हैं, यह उनका कर्म है और इसी का विपरीत आपका कर्म है। इसीलिए व्यक्ति को सदैव सकारात्मक व अच्छा ही सोचना चाहिए और हमेशा अच्छे कर्म बिना किसी फल की अपेक्षा किए करते चले जाना चाहिए क्योंकि इंसान की दुनिया में उसके कर्म से ही पहचान होती है। व्यक्ति जो आज है, यह उसके पूर्व में किए हुए कर्मों का परिणाम है और उसके वर्तमान कर्म उसका भविष्य निर्धारित करते हैं। जिस प्रकार व्यापारी के पास उसके व्यापार का बहीखाता होता है उसी प्रकार ईश्वर के पास प्रत्येक जीव के कर्मों का बहीखाता होता है जिसके आधार पर उसे उसके कर्मों का फल प्राप्त होता है। कर्म एक ऐसा रेस्टोरेंट है जहां पर कोई मैन्यू नहीं होता। आपको वही परोसा जाता है जो आपने पकाया है। अंत में दोस्तों अपने शब्दों को मैं इस सुविचार के साथ विराम देती हूं-
यह ज़रूरी तो नहीं कि इंसान हर रोज़ मंदिर जाए।
बल्कि
इंसान के कर्म ऐसे होनी चाहिए कि इंसान जहां भी जाए मंदिर वहीं बन जाए।
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सच है भक्ति आप जैसे कर्म करते हैं वैसे ही फल मिलते हैं
ReplyDeleteNice artical 👌 keep it up 👏👏👏👏
Thank you baba 🙂🙏
DeleteBohot badiya Bhakti....Shaishav Neha Bhatnagar
ReplyDeleteThank you Neha and Shalu bhaiya 🙂🙂
Deleteअति सुन्दर, कर्म के बिना कुछ भी हासिल नहीं होता और कीए गये कर्मों के आधार पर ही फल मिलता है। धन्यवाद।
ReplyDeleteThank you baba 🙂🙏
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