नदी की आत्मकथा
-सौ. भक्ति सौरभ खानवलकर
मैं प्रकृति के जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग हूं। मुझे अनेकों नाम से जाना जाता है जैसे- नहर, सरिता, प्रवाहिनी, तटिनी आदि। मेरा जन्म पर्वत मालाओं की गोद में हुआ है और नि:स्वार्थ भाव से जनकल्याण करते हुए मैं अंत में सागर में जा मिलती हूं। अपने जन्म से ही मैं बहुत चंचल हूं और निरंतर आगे बढ़ते रहना मेरा स्वभाव है। मुझे रोकना बिल्कुल असंभव है। मेरे रास्ते में कितनी भी रुकावटें आए मैं कभी नहीं रुकती और अपनी पूरी शक्ति को संचालित कर सभी रुकावटों को पार कर स्वयं अपना रास्ता निकाल कर बहती ही चली जाती हूं। पर्वत मालाओं से बहती हुई जब मैं झरनों के रूप में मैदानी भाग में आ पहुंचती हूं तो बहुत से गांवों और शहरों में खुशी और हरियाली छा जाती है। जहां-जहां से होकर मैं गुज़रती हूं वहां पर तट बन जाते हैं और आसपास छोटी-छोटी बस्तियां स्थापित होने लगती हैं। बस्तियां धीरे-धीरे गांव और शहर बनने लगते हैं जिनमें से कुछ सुंदर व दार्शनिक स्थलों के रूप में भी उभर कर आते हैं। मनुष्य व प्रकृति में रहने वाले सभी जीव एवं पेड़-पौधों के लिए मैं किसी वरदान से कम नहीं हूं।
मैं समाज और देश की खुशहाली के लिए अपना पूर्ण सहयोग देती रहती हुं। मुझ पर बांध बनाकर नहर निकाली जाती है। नहरों से मेरा जल दूर-दूर तक गांवो में पहुंचाया जाता है जिससे खेतों में सिंचाई की जाती है, जिसे घरेलू कामों में, पीने के लिए तथा कारखानों इत्यादि में उपयोग में लाया जाता है। मेरे जल से बिजली निर्माण भी किया जाता है। जिससे देश के कोन- कोने में रोशनी फैलती है। मैं पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, मनुष्य, खेत-खलियान और धरती पर समस्त प्राणियों की प्यास बुझाती हूं और उनके ताप को कम करके उन्हें जीवनदान देती हूं। इन्हीं कारणों से मेरी सरलता और सार्थकता सिद्ध होती है। मैं अनंत प्रकार के जल जीवों का घर भी हूं। मैं देश के विभिन्न स्थानों को एक दूसरे से जोड़ती हूं और इसी वजह से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने का एक साधन भी हूं।
मैं इस प्रकृति की खूबसूरत देन हूं फिर भी कुछ लोग हानिकारक पदार्थ व कचरा डालकर मुझे अशुद्ध करते हैं और मैं लोगों की इस बुराई को चुपचाप सहती रहती हूं। मैं कितनी भाग्यशाली हूं कि मेरे जल को भगवान की पूजा करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। मनुष्य जाति द्वारा मेरी पूजा की जाती है व मुझे मां समान सम्मान दिया जाता है। गंगा, जमुना, सरस्वती, यमुना, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, त्रिवेणी, गोदावरी आदि मेरे ही नाम हैं जिन्हें हिंदू धर्म में श्रेष्ठ मान कर पूजा की जाती है। फिर मनुष्य मां तुल्य नदी को प्रदूषित कर मेरा अपमान क्यों करता है? प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह मेरा सम्मान करे तथा मुझे प्रदूषित होने से बचाए और सदैव स्वच्छ व सुंदर बनाए रखे ताकि मेरे निर्मल, पवित्र व शुद्ध जल से समस्त प्राणियों का कल्याण हो सके।
कल-कल करती मेरी निर्मल धारा,
देखो प्रकृति पथ पर बढ़ती जा रही।
ना कोई रोक सके पथ मेरा,
देखो चट्टानों को चीरती जा रही।
रुकना और थकना मुझे नहीं आता,
हर मुश्किल को पीछे छोड़ आगे बढ़ती जा रही।
हरा-भरा कर देती मैं नगर सारा,
प्राणियों का कल्याण कर मैं बहती जा रही।
मनुष्य क्यों तू है मेरा अपमान करता,
देख मैं कितनी अशुद्ध होती जा रही।
मेरे जल को रख तू पवित्र ना कर इसे गंदा,
देख ज़रा मैं तो श्री हरि के पग पखारते जा रही।

Nadiyon ko bachana chahiye....Jal hi jeevan hai.
ReplyDeleteCongrats for this Blog
Nice Bhakti
Shaishav Bhatnagar
Deleteसच है नदियां हैं तो सभी प्राणियों का अस्तित्व है और इन्हें सबसे ज्यादा प्रदूषित मनुष्य ही करता है
ReplyDeleteअतः हमे नदियों को प्रदूषित होने से बचाना चाहिए
आप ने नदियों कि आवश्यकता के बारे में अपने विचार व्यक्त किए अति सुंदर एवं शिक्षा प्रद है। संसार के समस्त जीवों में मनुष्य हि एक ऐसा प्राणी है जो अपने स्वार्थ के लिए अपने जीवन को भी दांव पर लगा देता है, जबकि अन्य प्राणि नदियों का उपयोग सिर्फ पानी पीने के लिए करते हैं। मनुष्य यह जानते हुए भी की जल है तो जीवन है, फिर भी नदियों को गंदा कर रहा है।
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