रेस्टोरेंट: एक नया चलन
-सौ. भक्ति सौरभ खानवलकर
दोस्तों, इस बढ़ती महंगाई के कारण आम इंसान की जेब हल्की होती जा रही है। तनख़्वाह ज्यों की त्यों है पर हर रोज महंगाई बढ़ती चली जा रही हैै। और इस महंगाई के ज़माने में इंसान के शौक भी बढ़ते जा रहे हैं। किसी को लग्ज़री चीज़ों का शौक है, तो किसी को हर वक्त शॉपिंग का। सच ही कहा है किसी ने -"इंसान को जो कुछ भी मिलता है वह उसे कम ही लगता है और वह उससे अधिक पाने की कोशिश में ही लगा रहता है।" ख़ैर मनुष्य के शौक तो अपनी जगह पर हैं, पर दोस्तों आजकल एक नया ट्रेंड चल रहा है। घर में कोई फंक्शन हो, किसी का जन्मदिन हो, एनिवर्सरी हो या कोई भी खुशी का कारण हो या सिर्फ वीकेंड हो, रेस्टोरेंट में जाकर खाना खाने का ट्रेंड बढ़ता जा रहा है। जिसका सीधा-सीधा असर बढ़ती महंगाई के कारण इंसान की जेब पर भी पड़ रहा है।
आइए मैं आपको एक रोचक किस्सा बताती हूं। यह किस्सा रेस्टोरेंट्स में खाना खाने की आदत के बढ़ने के कारण लगभग सभी के साथ घटित होता है। आजकल इस बढ़ते ट्रेंड के कारण किसी भी रेस्टोरेंट में जाओ बहुत ही लंबी वेटिंग लाइन रहती है। किसी अच्छे रेस्टोरेंट पहुंचने के बाद रजिस्टर में अपना नाम लिखवाकर 45 मिनट से 1 घंटे की वेटिंग में ही इंसान की सारी भूख मिट जाती है। इतनी देर इंतजार करने के बाद जब मैनेजर आकर खाली टेबल की ओर ले जाता है तब थोड़ी सी जान में जान आती है कि चलो हमारा नंबर तो आया। 8-9 लोगों के हिसाब से टेबल थोड़ा छोटा है, पर जैसे-तैसे 2-3 एक्स्ट्रा कुर्सियां लगाकर सभी लोग एडजस्ट होकर बैठ जाते हैं। वेटर 4-5 मेनू कार्ड ला कर देता है। सब मिलकर सबसे पहले स्टार्ट डिसाइड करते हैं। वेटर ऑर्डर लेने आता है और सबसे पहला सवाल पूछता है मिनरल वाटर या नॉर्मल वॉटर? जिस की ओर से पार्टी होती है वह बड़ी ही उत्सुकता से सभी की ओर नज़र दौड़ाता है की कोई तपाक से बोल दे नॉर्मल वाटर परंतु किसी के कुछ भी ना कहने पर अपनी कॉलर ऊंची करने के लिए मिनरल वाटर ही कहता है। बाकी, दोनों पानी में कोई अंतर नहीं है यह सभी को पता होता है। पर हां, कीमत में काफी अंतर होता है! स्टार्टर टेबल पर आने के बाद टेबल पर उंगली रखने की जगह तक नहीं रहती और तो और इसकी मात्रा इतनी कम होती है कि छोटा-छोटा टुकड़ा सब की थाली में परोसा जाता है। सबकी पसंद का स्टार्टर मंगाने के बाद और उससे चखने के बाद भले ही मनपसंद स्वाद ना हो फिर भी बेमन से तारीफ़ करते हुए खाना पड़ता है। स्टार्टर खत्म होते ही वेटर फिर आकर खड़ा हो जाता है। मुस्कुराते हुए पूछता है सर मेन कोर्स? उससे थोड़ी आंखें चुराते हुए कहना पड़ता है भाई साहब कुछ वक्त बाद आइएगा फिर बताते हैं और दोबारा से मैन्यू कार्ड मंगवा कर मेन कोर्स डिसाइड किया जाता है। किसी को कुछ पसंद है तो किसी को कुछ और। मिली जुली भगत करके मैन्यू डिसाइड कर ऑर्डर दिया जाता है। मेन कोर्स लाने में इतनी देर लगाई जाती है कि स्टार्टर के प्लेट में बचे-कुचे टुकड़े भी बैठे-बैठे सफाचट हो जाते हैं और प्लटे इस तरह साफ हो जाती है कि मानो दोबारा से धुल के रखी हो। जब भी किसी वेटर को अपनी टेबल की ओर खाना लाते हुए देखो तो बस मन में यही ख्याल आता है कि चलो हमारा खाना आ गया। पर वो कभी दाएं तो कभी बाएं मुड़ कर किसी और की टेबल पर जाकर खाना परोस देता है। आपस में गप्पों का दौर और बातचीत चल रही होती हैं उतने में ही पास की टेबल से बड़ी ज़ोर से हंसी ठिठोली करने की आवाज़ आती है। सभी का ध्यान वहां जाता है और टेबल पर हो रहे गप्पों में खलल पड़ता है। दूसरी तरफ भूख के कारण पेट में चूहे दौड़ रहे हैं। जिस कारण मन ही मन यह सोच बहुत गुस्सा आ रहा होता है कि वेटिंग में 1 घंटे का इंतजार किया और अब खाना आने में 1 घंटे का इंतजार। आसपास होने वाली बिना मतलब की हंसी-ठिठोली और बची-कुची कसर बैकग्राउंड में लगे कुछ अजीब सा म्यूज़िक पूरी कर देता है। इतना सब झेलते हुए भी सब के साथ मुस्कुराते हुए बैठना पड़ता है। टेबल पर बैठे लोगों में से अचानक किसी एक को याद आता है की गर्मी हो रही है। मैनेजर को बुलाकर ऐ.सी. बढ़ाया जाता है लेकिन कोई असर नहीं होता। जिसने ऐ.सी. का टेंपरेचर बढ़वाया होता है वह मुस्कुराते हुए और अपने मन को समझाते हुए कहता है," शायद भीड़ ज्यादा है ना"! ख़ैर, काफी देर के इंतजार के बाद खाना टेबल पर लग जाता है। बातचीत करते हुए खाने का आनंद लेते हुए खाना खत्म होता है। आखिर में वेटर आकर पूछता है, "सर राइस?" तभी कुछ लोग कहते हैं, "हां भाई हाफ प्लेट राइस ले आइएगा।" राइस आने के बाद याद आता है कि राइस के साथ खाने के लिए दाल भी खत्म हो गई है। फिर से एक प्लेट दाल का आर्डर दिया जाता है और राइस खत्म होते-होते दाल आती है। जो बाद में आधी भी खत्म नहीं हो पाती और बची-कुची दाल पैक कराने के लिए दे दी जाती है। छोटी-सी कटोरी में चुल्लू भर पानी वह भी कहने को गुनगुना और एक नींबू के छोटे-से स्लाइस डला हुआ फिंगर बाउल सबके सामने रख दिया जाता है। इतना छोटा-सा होता है कि जैसे-तैसे उस में हाथ डालकर हाथ साफ कर ही रहे होते हैं, तभी वेटर फिर से आकर मुस्कुराते हुए पूछता है,"डेज़र्ट में कुछ लेंगे सर?" गर्मी को ध्यान में रखकर आइसक्रीम मंगवाई जाती है। बाहर अच्छे आइसक्रीम पार्लर में मिलने वाली आइसक्रीम से भी ज़्यादा कीमत की मंगवाने के बाद बिल कुछ कुल जमा के लगभग 2500 से 3000 रुपय तक आता है। और-तो-और यदि कुछ खाना पैक करवाया है तो डब्बे का भी बिल में चार्ज लगाया जाता है। बिल चुकाने के बाद बारी आती है वेटर को टिप देने की। इतने बड़े होटल में सब के साथ आए हैं 10-20 रुपए से तो काम नहीं चलेगा ना? कॉलर ऊंची जो रखनी है! इसलिए कम-से-कम 50 रुपए की टिप वेटर को दी जाती है। खर्चा यहीं नहीं रुकता। बाहर निकलने पर गाड़ी पार्क करवाने के लिए, इतनी देर गाड़ी का ध्यान रखने के लिए "जी साहब जी" करके बॉडीगार्ड आस लगाए देखता है। उसे भी 20- 30 रूपए की टिप दी जाती हैं। कुल जमा कर खर्चा आप तो जोड़ी लेंगे ना?
पर कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे हैं कि मैं आपको यह सब क्यों बता रही हूं? मैं जो बता रही हूं इन बातों पर यदि गौर फरमाएं और खुद से ही यह सवाल पूछें कि, होटल में जो खाना खाया जाता है क्या वाकई उसका मूल्यांकन सही होता है? किस पद्धति से बनाया जाता है? वह कितना शुद्ध है? यह जाने बिना ऐसे खाने को कुछ ही मिनटों में चट कर दिया जाता है। इतना खर्च करने के बाद अंत में क्या मिलता है? रात में होने वाली एसिडिटी, पेट दर्द या कभी कहीं पर कुछ खराब खा लेने से फूड पॅाइज़निंग और अनावश्यक खर्च। मैं रेस्टोरेंट में खाना खाने के खिलाफ नहीं हूं पर अत्यधिक बाहर का खाना खाने के अपने कई नुकसान भी हैं ऐसा मेरा मानना है। इससे अच्छा तो दोस्तों यदि सब मिलकर रेस्टोरेंट जाने की जगह किसी पिकनिक स्पॉट पर प्रकृति के सौंदर्य के बीच अपने-अपने घर से स्वादिष्ट पकवान बना कर लाएं और साथ बैठकर उस का आनंद उठाएं। जिससे आपसी मेलजोल, मित्रों व रिश्तेदारों के साथ आपसी संबंधों में मधुरता और अधिक बढ़ेगी। प्राकृतिक सौंदर्य के बीच जाकर इंसान प्रकृति के करीब भी पहुंचेगा और घर के बने शुद्ध एवं स्वादिष्ट पकवानों का आनंद भी ले पाएगा। निवांत बैठकर गप्पे और बातचीत कर पाएगा और अपनों के साथ अधिक समय व्यतीत कर सकेगा।
आइए मैं आपको एक रोचक किस्सा बताती हूं। यह किस्सा रेस्टोरेंट्स में खाना खाने की आदत के बढ़ने के कारण लगभग सभी के साथ घटित होता है। आजकल इस बढ़ते ट्रेंड के कारण किसी भी रेस्टोरेंट में जाओ बहुत ही लंबी वेटिंग लाइन रहती है। किसी अच्छे रेस्टोरेंट पहुंचने के बाद रजिस्टर में अपना नाम लिखवाकर 45 मिनट से 1 घंटे की वेटिंग में ही इंसान की सारी भूख मिट जाती है। इतनी देर इंतजार करने के बाद जब मैनेजर आकर खाली टेबल की ओर ले जाता है तब थोड़ी सी जान में जान आती है कि चलो हमारा नंबर तो आया। 8-9 लोगों के हिसाब से टेबल थोड़ा छोटा है, पर जैसे-तैसे 2-3 एक्स्ट्रा कुर्सियां लगाकर सभी लोग एडजस्ट होकर बैठ जाते हैं। वेटर 4-5 मेनू कार्ड ला कर देता है। सब मिलकर सबसे पहले स्टार्ट डिसाइड करते हैं। वेटर ऑर्डर लेने आता है और सबसे पहला सवाल पूछता है मिनरल वाटर या नॉर्मल वॉटर? जिस की ओर से पार्टी होती है वह बड़ी ही उत्सुकता से सभी की ओर नज़र दौड़ाता है की कोई तपाक से बोल दे नॉर्मल वाटर परंतु किसी के कुछ भी ना कहने पर अपनी कॉलर ऊंची करने के लिए मिनरल वाटर ही कहता है। बाकी, दोनों पानी में कोई अंतर नहीं है यह सभी को पता होता है। पर हां, कीमत में काफी अंतर होता है! स्टार्टर टेबल पर आने के बाद टेबल पर उंगली रखने की जगह तक नहीं रहती और तो और इसकी मात्रा इतनी कम होती है कि छोटा-छोटा टुकड़ा सब की थाली में परोसा जाता है। सबकी पसंद का स्टार्टर मंगाने के बाद और उससे चखने के बाद भले ही मनपसंद स्वाद ना हो फिर भी बेमन से तारीफ़ करते हुए खाना पड़ता है। स्टार्टर खत्म होते ही वेटर फिर आकर खड़ा हो जाता है। मुस्कुराते हुए पूछता है सर मेन कोर्स? उससे थोड़ी आंखें चुराते हुए कहना पड़ता है भाई साहब कुछ वक्त बाद आइएगा फिर बताते हैं और दोबारा से मैन्यू कार्ड मंगवा कर मेन कोर्स डिसाइड किया जाता है। किसी को कुछ पसंद है तो किसी को कुछ और। मिली जुली भगत करके मैन्यू डिसाइड कर ऑर्डर दिया जाता है। मेन कोर्स लाने में इतनी देर लगाई जाती है कि स्टार्टर के प्लेट में बचे-कुचे टुकड़े भी बैठे-बैठे सफाचट हो जाते हैं और प्लटे इस तरह साफ हो जाती है कि मानो दोबारा से धुल के रखी हो। जब भी किसी वेटर को अपनी टेबल की ओर खाना लाते हुए देखो तो बस मन में यही ख्याल आता है कि चलो हमारा खाना आ गया। पर वो कभी दाएं तो कभी बाएं मुड़ कर किसी और की टेबल पर जाकर खाना परोस देता है। आपस में गप्पों का दौर और बातचीत चल रही होती हैं उतने में ही पास की टेबल से बड़ी ज़ोर से हंसी ठिठोली करने की आवाज़ आती है। सभी का ध्यान वहां जाता है और टेबल पर हो रहे गप्पों में खलल पड़ता है। दूसरी तरफ भूख के कारण पेट में चूहे दौड़ रहे हैं। जिस कारण मन ही मन यह सोच बहुत गुस्सा आ रहा होता है कि वेटिंग में 1 घंटे का इंतजार किया और अब खाना आने में 1 घंटे का इंतजार। आसपास होने वाली बिना मतलब की हंसी-ठिठोली और बची-कुची कसर बैकग्राउंड में लगे कुछ अजीब सा म्यूज़िक पूरी कर देता है। इतना सब झेलते हुए भी सब के साथ मुस्कुराते हुए बैठना पड़ता है। टेबल पर बैठे लोगों में से अचानक किसी एक को याद आता है की गर्मी हो रही है। मैनेजर को बुलाकर ऐ.सी. बढ़ाया जाता है लेकिन कोई असर नहीं होता। जिसने ऐ.सी. का टेंपरेचर बढ़वाया होता है वह मुस्कुराते हुए और अपने मन को समझाते हुए कहता है," शायद भीड़ ज्यादा है ना"! ख़ैर, काफी देर के इंतजार के बाद खाना टेबल पर लग जाता है। बातचीत करते हुए खाने का आनंद लेते हुए खाना खत्म होता है। आखिर में वेटर आकर पूछता है, "सर राइस?" तभी कुछ लोग कहते हैं, "हां भाई हाफ प्लेट राइस ले आइएगा।" राइस आने के बाद याद आता है कि राइस के साथ खाने के लिए दाल भी खत्म हो गई है। फिर से एक प्लेट दाल का आर्डर दिया जाता है और राइस खत्म होते-होते दाल आती है। जो बाद में आधी भी खत्म नहीं हो पाती और बची-कुची दाल पैक कराने के लिए दे दी जाती है। छोटी-सी कटोरी में चुल्लू भर पानी वह भी कहने को गुनगुना और एक नींबू के छोटे-से स्लाइस डला हुआ फिंगर बाउल सबके सामने रख दिया जाता है। इतना छोटा-सा होता है कि जैसे-तैसे उस में हाथ डालकर हाथ साफ कर ही रहे होते हैं, तभी वेटर फिर से आकर मुस्कुराते हुए पूछता है,"डेज़र्ट में कुछ लेंगे सर?" गर्मी को ध्यान में रखकर आइसक्रीम मंगवाई जाती है। बाहर अच्छे आइसक्रीम पार्लर में मिलने वाली आइसक्रीम से भी ज़्यादा कीमत की मंगवाने के बाद बिल कुछ कुल जमा के लगभग 2500 से 3000 रुपय तक आता है। और-तो-और यदि कुछ खाना पैक करवाया है तो डब्बे का भी बिल में चार्ज लगाया जाता है। बिल चुकाने के बाद बारी आती है वेटर को टिप देने की। इतने बड़े होटल में सब के साथ आए हैं 10-20 रुपए से तो काम नहीं चलेगा ना? कॉलर ऊंची जो रखनी है! इसलिए कम-से-कम 50 रुपए की टिप वेटर को दी जाती है। खर्चा यहीं नहीं रुकता। बाहर निकलने पर गाड़ी पार्क करवाने के लिए, इतनी देर गाड़ी का ध्यान रखने के लिए "जी साहब जी" करके बॉडीगार्ड आस लगाए देखता है। उसे भी 20- 30 रूपए की टिप दी जाती हैं। कुल जमा कर खर्चा आप तो जोड़ी लेंगे ना?
पर कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे हैं कि मैं आपको यह सब क्यों बता रही हूं? मैं जो बता रही हूं इन बातों पर यदि गौर फरमाएं और खुद से ही यह सवाल पूछें कि, होटल में जो खाना खाया जाता है क्या वाकई उसका मूल्यांकन सही होता है? किस पद्धति से बनाया जाता है? वह कितना शुद्ध है? यह जाने बिना ऐसे खाने को कुछ ही मिनटों में चट कर दिया जाता है। इतना खर्च करने के बाद अंत में क्या मिलता है? रात में होने वाली एसिडिटी, पेट दर्द या कभी कहीं पर कुछ खराब खा लेने से फूड पॅाइज़निंग और अनावश्यक खर्च। मैं रेस्टोरेंट में खाना खाने के खिलाफ नहीं हूं पर अत्यधिक बाहर का खाना खाने के अपने कई नुकसान भी हैं ऐसा मेरा मानना है। इससे अच्छा तो दोस्तों यदि सब मिलकर रेस्टोरेंट जाने की जगह किसी पिकनिक स्पॉट पर प्रकृति के सौंदर्य के बीच अपने-अपने घर से स्वादिष्ट पकवान बना कर लाएं और साथ बैठकर उस का आनंद उठाएं। जिससे आपसी मेलजोल, मित्रों व रिश्तेदारों के साथ आपसी संबंधों में मधुरता और अधिक बढ़ेगी। प्राकृतिक सौंदर्य के बीच जाकर इंसान प्रकृति के करीब भी पहुंचेगा और घर के बने शुद्ध एवं स्वादिष्ट पकवानों का आनंद भी ले पाएगा। निवांत बैठकर गप्पे और बातचीत कर पाएगा और अपनों के साथ अधिक समय व्यतीत कर सकेगा।
'यदि इंसान की सोच सही हो, तो उसकी लाइफ भी सही ही होती है।'


सही बात है भक्ति
ReplyDeleteबाहर के खाने को कम करके हम अपनी सेहत व जेब दोनों का ख्याल रख सकते हैं
Beautifully described article. Keep up the good work.
ReplyDeleteBadhiya, Bhakti.
ReplyDeleteआपका लेख और विचार बहुत बढ़िया है।
ReplyDeleteलेकिन मैं अपने विचार ईस विषय पर नहिं रख सकता क्योंकि शुद्धता और जेबखर्च के उपर पत्नी के इच्छा का भी ध्यान रखना पड़ता है वर्ना होटल के खाने के बाद तबियत खराब हो ना हो पर पत्नी के क्रोध से तबियत जरुर खराब हो जायेगी। Sorry में मजाक कर रहा हूं। आपका लेख वाकई में सराहनीय है।