Friday, 27 September 2019

व्यक्तित्व : मनुष्य का दर्पण | Hindi


व्यक्तित्व : मनुष्य का दर्पण




-सौ. भक्ति सौरभ खानवलकर
-कोलंबिया, साउथ कैरोलिना, यू.एस..



व्यक्ति का व्यक्तित्व ठीक उसी तरह है जिस तरह एक फूल के लिए उसकी खुशबू। व्यक्तित्व शब्द से सभी भली-भांति परिचित हैं। व्यक्तित्व या पर्सनॅलिटी को अक्सर लोग शारीरिक आकर्षण या सुंदरता से जोड़ कर देखते हैं। पर क्या सही मायने में इस शब्द के व्यापक रूप को कोई समझ पाया है? पर्सनालिटी शब्द लैटिन भाषा के शब्द 'परसोना' से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है 'मुखौटा'। जिसका उपयोग रोमन लोग थियेटर में काम करने के लिए और अलग-अलग किरदार निभाने के लिए करते थे। इसका अर्थ ये हुआ की व्यक्तित्व मनुष्य के किरदार की पहचान है। व्यक्तित्व को सही रूप में इस परिभाषा से समझा जा सकता है – ‘पर्सनॅलिटी सिर्फ़ शारीरिक गुणों से ही नहीं बल्कि विचारों और व्यवहार से मिलकर बनती है जो व्यक्ति के व्यवहार और समाज में उसके सामंजस को भी निर्धारित करती है। कोई भी व्यक्ति जन्म से ही अच्छा व्यक्तित्व लेकर पैदा नहीं होता है। बल्कि सफल होने लिए अपने अंदर के गुणों को विकसित करना पड़ता है। ऐसे गुण जो दूसरों को प्रभावित करें व साथ-ही-साथ स्वयं का भी विकास करें।'
शारीरिक रूप से सुंदर होना या बुद्धिमान होना व्यक्तित्व का सिर्फ़ एक मामूली सा पहलू है। बल्कि अच्छे व्यक्तित्व के लिए ज्ञान का सही उपयोग करना और अपने हाव-भाव को उसके अनुरूप बनाना आवश्यक होता है। अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए पहली आवश्यकता है स्वयं को सही तरीके से समझना क्योंकि कहते हैं ना कि व्यक्ति को वही नज़र आता है जो वह देखना चाहता है और जो वह समझता है। अपने नकारात्मक विचारों से दूर रहना और दूसरों के प्रति हीन भावना को दूर करना अपने व्यक्तित्व में निखार लाने के लिए पहला कदम है। दुनिया का एक बहुत बड़ा भ्रम है कि अगर व्यक्ति दिखने में आकर्षक अथवा सुंदर नहीं है तो उसका व्यक्तित्व अच्छा नहीं हो सकता। महात्मा गांधी, डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम, अटल बिहारी वाजपेई और ना जाने कितने ही इनके जैसे महान व्यक्तित्व वाले लोग शारीरिक रूप से आकर्षक नहीं थे पर मानव जाती के लिए इनका व्यक्तित्व एक मिसाल है। क्योंकि इन लोगों ने अपने नकारात्मक विचारों पर विजय पाई और खुद पर भरोसा किया। नकारात्मक विचारों पर विजय पाने का उपाय है स्वयं से प्रेम करना, स्वयं के लिए हमेशा अच्छा सोचना और जीवन में वास्तविक लक्ष्य निर्धारित करना।
अपने साथियों से बेहतर बनने के बजाएं कोशिश करें की अपने आप से बेहतर बनें। तनाव और डर दो बहुत ही बड़े कारण हैं जो व्यक्तित्व को पूरी तरह से निखरने नहीं देते। स्वयं के अंदर के डर को पहचानना और उससे मुक्त होने का प्रयास करना अत्यंत आवश्यक है। सब से बड़ा डर जो किसी भी व्यक्ति के मन में होता है वह है असफलता और आलोचनाओं का डर। जिसे बार-बार प्रयास कर के ही दूर किया जा सकता है। सकारात्मक रवैया, आत्मविश्वास, व्यवहारिक ज्ञान, स्वप्रेरणा और अच्छी बॉडी लैंग्वेज का इस्तेमाल कर के व्यक्तित्व को विकसित किया जा सकता है। परंतु यह तभी संभव है जब व्यक्ति के मन में सकारात्मक विचार आएँगे और यह तभी आ सकते हैं जब आप स्वयं के व्यक्तित्व को, स्वयं की भौतिक विशेषताओं को बिना किसी प्रश्न के साथ ईमानदारी से स्वीकार करेंगे। व्यक्तित्व में विचारों और व्यवहार की भूमिका के साथ-साथ भौतिक विशेषताओं को नकारा नहीं जा सकता। भौतिक विशेषताएं या फिजिकल कैरेक्टरिस्टिक्स का अर्थ खूबसूरत चेहरे से नहीं बल्कि इसका तात्पर्य व्यक्ति कितना ऊर्जावान और सक्रिय है, इससे होता है। साथ ही साथ सही शिष्टाचार, दूसरे व्यक्ति से बात करने व उनसे आचरण करने का तरीका और ज्ञान व व्यवहारिक ज्ञान का होना अत्यंत आवश्यक है। व्यक्तित्व का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा दूसरे व्यक्तियों के साथ संबंध है। किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व इस बात से भी आँका जा सकता है कि वो किस प्रकार के व्यक्तित्व वाले लोगों से मिलता है अथवा संबंध रखता है।
आत्मविश्वास, व्यवहारिक ज्ञान, सकारात्मक विचार, अच्छी बॉडी लैंग्वेज के अलावा कुछ और भी गुण यदि व्यक्ति अपनाए तो उसके व्यक्तित्व में चार चाँद अवश्य लग जाएंगे - जैसे धैर्यवान होना। यह अत्यंत ज़रूरी गुण होता है क्योंकि हर व्यक्ति को अपने जीवन में उतार-चढ़ाव और कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। आकर्षक व्यक्तित्व पाने के लिए भाषा में निपुणता होना ज़रूरी है। बोलते और लिखते समय सही शब्दों का चुनाव करते आना चाहिये। उदाहरण के लिए भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी पूरे विश्व में जहां कहीं भी जाते हैं, उनका भाषण सुनने के लिए लाखों लोग खींचे चले आते हैं। उनकी भाषा और व्याकरण बेहद समृद्ध है। वे कभी भी पढ़कर भाषण नहीं देते। इसी से उनके महान व्यक्तित्व के बारे में पता चलता है। व्यक्ति द्वारा बोले गए शब्द उसके व्यक्तित्व का आईना होते हैं। क्षमा करना भी व्यक्तित्व का अद्भुत गुण है। गलती होने पर किसी को क्षमा करना सरल नहीं होता है। परंतु इस गुण को धारण करने से व्यक्ति का व्यक्तित्व और भी महान बनता है। व्यक्ति को हमेशा सामने वाले के व्यक्तित्व को भाँपते हुए प्रतिक्रिया देनी चाहिए क्योंकि हर व्यक्ति इस दुनिया में अद्वितीय है। हर प्रकार के व्यक्तित्व का आदर करना चाहिए और अपने व्यक्तित्व विकास के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए। यह सदैव याद रखिए कि-
'दो तथ्य व्यक्तित्व को परिभाषित
करते हैं आपका धैर्य,
तब जब आपके पास कुछ ना हो,
आपका व्यवहार,
जब आपके पास सब कुछ हो।'

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Friday, 20 September 2019

कर्म: जो बोओगे वही काटोगे | Hindi


कर्म: जो बोओगे वही काटोगे



-सौ. भक्ति सौरभ खानवलकर
-कोलंबिया, साउथ कैरोलिना, यू.एस..

कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन।
मां कर्मफलहेतुर्भूः मांते संङगोस्त्वकर्माणि।।

            श्रीमद् भगवत गीता के इस श्लोक का अर्थ है- मनुष्य को सिर्फ कर्म करने का अधिकार है, कर्म का फल देने का अधिकार भगवान का है। कर्म-फल की इच्छा से कभी काम मत करो और ना ही कर्म ना करने की आपकी प्रवृत्ति होनी चाहिए। 
दोस्तों, कर्म क्या है? मनुष्य द्वारा किए गए कर्मों का परिणाम किस प्रकार निर्धारित किया जाता है? इसी प्रकार के कई प्रश्न मनुष्य के मन में उठते हैं। वैसे कर्म एक विस्तृत विषय है और यदि इस पर चर्चा की जाए तो वह अनंत है। इसे समझना जाना इतना आसान नहीं है। सामान्यतः कर्म के बारे में व्यक्ति यही जानता है कि यह दो प्रकार के होते हैं - अच्छे और बुरे। जिस तरह के कर्म व्यक्ति अपने जीवन में करेगा उसे उसी के अनुरूप परिणाम मिलेगा। जब व्यक्ति खेत में बीज बोता है तो फसल की गुणवत्ता धरती की उर्वरता पर निर्भर करती है। ऐसे ही मनुष्य का प्रत्येक कर्म चाहे वह कितना ही छोटा क्यों ना हो फलीभूत होने की क्षमता रखता है और इसका फल इस पर निर्भर करता है कि वह कर्म अच्छा है या बुरा। कर्मों के नियम में भी यह बात कही है कि जैसा आप बोओगे वैसा ही काटोगे। कहते हैं व्यक्ति इस संसार में अकेला एवं खाली हाथ जन्म लेता है और वैसा ही वह मृत्यु को प्राप्त होता है। परंतु यह मिथ्या है। वह इस संसार में खाली हाथ तो अवश्य आता है लेकिन अपने किए गए कर्मों को साथ लेकर जाता है।
नीचे लिखी हुई कहानी के माध्यम से कर्म क्या है, आइए जानने की कोशिश करते हैं। एक व्यक्ति था। उसके तीन मित्र थे। एक मित्र ऐसा था जो सदैव साथ रहता था। एक पल, एक क्षण भी बिछड़ता नहीं था। दूसरा मित्र ऐसा था, जो सिर्फ सुबह शाम मिलता था। और तीसरा मित्र ऐसा था, जो बहुत दिनों में कभी-कभी मिल जाता था। एक दिन उस व्यक्ति को किसी कारणवश अदालत जाना था और किसी को अपने साथ गवाह बनाकर ले जाना था। अब व्यक्ति सबसे पहले अपने उस मित्र के पास गया जो सदैव उसका साथ देता था और बोला, "मित्र क्या तुम मेरे साथ अदालत में गवाह बनकर चल सकते हो?" वह मित्र बोला, "माफ़ करो दोस्त। मुझे तो आज फुर्सत नहीं।" उस व्यक्ति ने सोचा कि 'यह मित्र मेरा हमेशा साथ देता था पर आज मुसीबत के समय इसने मेरा साथ देने से इनकार क्यों कर दिया? अब दूसरे मित्र से मुझे क्या आशा है?' फिर भी हिम्मत रख कर दूसरे मित्र के पास गया जो सुबह-शाम मिलता था और अपनी समस्या सुनाई। दूसरे मित्र ने कहा, "मेरी एक शर्त है कि मैं सिर्फ अदालत के दरवाज़े के पास तक आऊंगा अंदर तक नहीं।" वह बोला, "बाहर के लिए तो मैं ही बहुत हूं। मुझे तो अंदर के लिए गवाह चाहिए।" फिर वह थक हार कर अपने तीसरे मित्र के पास गया जो बहुत दिनों में मिलता था और अपनी समस्या सुनाई। तीसरा मित्र उसकी समस्या सुनकर तुरंत उसके साथ चल दिया। अब आप सोच रहे होंगे कि वह तीन मित्र कौन हैं? तो चलिए इस कथा का सार जानते हैं। जैसे कहानी में तीन मित्रों की बातों का वर्णन है, उसी प्रकार हर व्यक्ति के तीन मित्र होते हैं। सबसे पहला मित्र है - व्यक्ति का 'शरीर', व्यक्ति जहां भी जाएंगा शरीर रूपी पहला मित्र हमेशा उसके साथ रहेगा। हर पल, हर क्षण वह कभी उससे दूर नहीं होगा। दूसरा मित्र है - शरीर के 'संबंधी' जैसे माता-पिता, भाई-बहन, मित्र, परिचित इत्यादि, जिनके साथ व्यक्ति रहता हैं। जो सुबह, दोपहर, शाम मिलते हैं। तथा तीसरा मित्र है - 'कर्म', जो सदैव व्यक्ति की आत्मा के साथ जाता है। ज़रा सोचिए, आत्मा जब शरीर छोड़कर धर्मराज की अदालत में जाती है, उस समय शरीर रूपी पहला मित्र एक कदम भी आगे चलकर साथ नहीं देता। जैसा कि उस पहले मित्र ने साथ नहीं दिया। दूसरा मित्र यानी कि संबंधी जो अदालत के दरवाज़े तक साथ आते हैं और वहां से वापस लौट जाते हैं। तीसरा मित्र, व्यक्ति के कर्म जो सदा ही साथ जाते हैं चाहे अच्छे हों या बुरे, कर्म सदा व्यक्ति के साथ चलते हैं। 
व्यक्ति अच्छा और बुरा दोनों ही सोचता है पर जिसका स्मरण वह ज्यादा करता है, वैसी ही उसकी प्रवृत्ति हो जाती है। प्रवृत्ति धीरे-धीरे स्वभाव स्वभाव से आचरण और फिर आचरण से जीवन में आने लगती है और फिर व्यक्ति वैसा ही हो जाता है जैसा वह सोचता है और व्यक्ति की अच्छी और बुरी सोच ही उसे अच्छे या बुरे कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। आपको दूसरे व्यक्ति क्या बोलते हैं, आपके बारे में क्या सोचते हैं, आपके लिए क्या करते हैं, यह उनका कर्म है और इसी का विपरीत आपका कर्म है। इसीलिए व्यक्ति को सदैव सकारात्मक अच्छा ही सोचना चाहिए और हमेशा अच्छे कर्म बिना किसी फल की अपेक्षा किए करते चले जाना चाहिए क्योंकि इंसान की दुनिया में उसके कर्म से ही पहचान होती है। व्यक्ति जो आज है, यह उसके पूर्व में किए हुए कर्मों का परिणाम है और उसके वर्तमान कर्म उसका भविष्य निर्धारित करते हैं। जिस प्रकार व्यापारी के पास उसके व्यापार का बहीखाता होता है उसी प्रकार ईश्वर के पास प्रत्येक जीव के कर्मों का बहीखाता होता है जिसके आधार पर उसे उसके कर्मों का फल प्राप्त होता है। कर्म एक ऐसा रेस्टोरेंट है जहां पर कोई मैन्यू नहीं होता। आपको वही परोसा जाता है जो आपने पकाया है। अंत में दोस्तों अपने शब्दों को मैं इस सुविचार के साथ विराम देती हूं-
यह ज़रूरी तो नहीं कि इंसान हर रोज़ मंदिर जाए।
बल्कि
इंसान के कर्म ऐसे होनी चाहिए कि इंसान जहां भी जाए मंदिर वहीं बन जाए।


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