Friday, 31 May 2019

सूरत भली या सीरत | Hindi

सूरत भली या सीरत



-सौ. भक्ति सौरभ खानवलकर
-कोलंबिया, साऊथ कैरोलिना, यू. एस. .




             सुंदरता, खूबसूरती या फिर सौंदर्य किसे आकर्षित नहीं करता। यदि सुंदरता पर गौर किया जाए तो वह दो प्रकार की होती है, एक आंतरिक सुंदरता और दूसरा बाहरी सुंदरता। बाहरी सुंदरता की तुलना में आंतरिक सुंदरता अधिक महत्वपूर्ण है। आंतरिक सुंदरता किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व, उसके विचार, उसके आचरण को दर्शाती है और बाहरी सुंदरता का अर्थ है मात्र व्यक्ति का रूप।
           वर्तमान समय में सुंदरता के सारे अर्थ ही बदल गए हैं। लोग सुंदर दिखने के लिए न जाने क्या-क्या तरीके अपनाते हैं और पैसे को पानी की तरह बहा देते हैं। कई बार तो सुंदरता प्राप्त करने के लिए लोगों को पीड़ा भी सहन करनी पड़ती है। फिर भी बाहरी सुंदरता व दिखावे की ओर कुछ लोग हमेशा भागते नज़र आते हैं। व्यक्ति यह भूल जाता है कि उसकी असली सुंदरता व पहचान उसके रूप में नहीं उसके अच्छे व्यवहार, अच्छे कर्म और अच्छे गुणों से है। बाहरी सुंदरता नकली व एक दिखावा हो सकती है लेकिन आंतरिक सुंदरता मनुष्य का अपना गुण होता है। व्यक्ति के रूप को कई प्रकार से निखारा जा सकता है, उदाहरण - मेकअप, अच्छे ड्रेस या यहां तक की कॉस्मेटिक सर्जरी द्वारा बाहरी सुंदरता निखर सकती है। कुछ लोग ऐसा सिर्फ इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें यह लगता है कि बाहरी सुंदरता ही सब कुछ है। व्यक्ति अपने भीतर की सुंदरता को भूल जाता है। यदि कोई व्यक्ति कितना ही आकर्षक दिखता हो किंतु उसके विचार और आचरण अच्छे नहीं हों तो इस प्रकार की सुंदरता का क्या अर्थ है?
           बाहरी सुंदरता तो उम्र के साथ ढल जाती है मगर आंतरिक सुंदरता स्थाई होती है। व्यक्ति की आंतरिक सुंदरता कभी नष्ट नहीं होती चाहे वह दुनिया में ही क्यों ना हो। तब भी उसके विचार, व्यवहार व गुण अर्थात् आंतरिक सुंदरता के बल पर वह लोगों के हृदय में सदैव जीवित रहता है। यही बात यह सीख देती है कि व्यक्ति के जीवन में आंतरिक सुंदरता का कितना महत्वपूर्ण योगदान है। तन से कहीं ज्यादा मन की सुंदरता जरूरी होती है क्योंकि मनुष्य का चित्त और मन जिस प्रकार विचार करता है वह मनुष्य के व्यवहार में साफ़ नज़र आता है। व्यक्ति की अच्छी सोच ही उसका व्यवहार भी अच्छा बनाती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए किसी भी व्यक्ति की तन की नहीं बल्कि मन की सुंदरता देखना चाहिए। बाहरी सुंदरता प्रकृति की देन होती है। मगर आंतरिक सुंदरता मनुष्य के संस्कारों से ही उसमें उत्पन्न होती है। घर-परिवार से लेकर स्कूल-कॉलेज में जो संस्कार व्यक्ति को मिलते हैं उसी से उसके गुणों का विकास होता है। इन्हीं गुणों से व्यक्ति के व्यक्तित्व में चार चाँद लग जाते हैं। अर्थात अपनी आंतरिक सुंदरता को बढ़ाना व्यक्ति के स्वयं के हाथों में ही होता है। आंतरिक गुणों के विकास से मनुष्य की ख्याति जन्म जन्मांतर तक लोगों के बीच अमिट रहती है। यदि कोई व्यक्ति विशेष रूप-वान ना भी हो तो यह महत्वपूर्ण नहीं है। उसके संस्कार, विचार, व्यक्तित्व व गुण ऐसे होने चाहिए कि वह अपने मन की सुंदरता से सभी का चहेता बन सके। तथा इसी प्रकार के गुण-वान व्यक्ति का सरल स्वभाव व उसकी सादगी उसकी कमज़ोरी नहीं होती है यह उसकी मन की सुंदरता को और निखारती है।



मत कर किसी की सूरत से प्यार,
वह तो आज ना कल बदल जाएगा|
करके देख किसी की सीरत पर एतबार,
तेरा हर पल संवर जाएगा|

एक सुंदर मन हजारों सुंदर चेहरों से बेहतर होता है|




Tuesday, 21 May 2019

टेक्नोलॉजी और बचपन | Hindi



टेक्नोलॉजी और बचपन


-सौ भक्ति सौरभ खानवलकर

-कोलंबिया, साऊथ कैरोलिना, यू. एस. ए.



  ‌ ‌     टेक्नोलॉजी का जिस प्रकार विकास और विस्तार हो रहा है उसका सीधा-सीधा असर मनुष्य के दैनिक कार्यों पर भी पड़ रहा है। हर दिन कोई नई टेक्नोलॉजी मार्केट में आती है नए लैपटॉप, नए मोबाइल आने वाले दस दिनों में पुराने हो जाते हैं। आप यह सोच रहे होंगे कि टेक्नोलॉजी और बचपन का क्या संबंध है? टेक्नोलॉजी का बचपन से संबंध भी ठीक उसी तरह है जैसे बिना वाईफाई या मोबाइल डाटा का मोबाइल फोन। अर्थात् बिना लैपटॉप, मोबाइल की स्क्रीन देखे बिना आजकल के बच्चों का दिन अधूरा रह जाना। हर समय या कोई भी काम करते वक्त मोबाइल फोन या लैपटॉप बेहद जरूरी है। स्कूल या कॉलेज में जाने वाले बच्चों के साथ-साथ उन नन्हें बच्चों पर भी इसका प्रभाव देखने को मिलता है जो अभी एक से बोलना भी नहीं सीख पाए हैं। टेक्नोलॉजी ने अपना जाल कुछ इस तरह फैला रखा है मानो यदि बच्चा रोए या मां को परेशान करे अथवा खाना ना खाए या कोई ऐसा काम करे जिससे बड़ों को अपने काम करने में अड़चन हो तो बच्चों को मोबाइल, लैपटॉप या टीवी पर बिजी कर दिया जाता है। बचपन से ही बच्चों को मोबाइल, वीडियो गेम, लैपटॉप, टीवी देखने की लत-सी लग जाती है और उनकी दुनिया स्कूल और घर के अंदर तक ही सिमट कर रह जाती है। जिस वजह से बच्चे आउटडोर गेम्स में रुचि ना लेकर घर में बैठकर मोबाइल, लैपटॉप या वीडियो गेम्स ही खेलते रहते हैं। जिससे मानसिक व शारीरिक विकास ठीक से नहीं हो पाता है।
        दोस्तों, ज़रा याद कीजिए हमारे बचपन में हम जो भी काम करते थे खुद के दिमाग से सोच समझकर करते थे। परंतु अब सारी ही चीज़ें मोबाइल या कुछ एप्लीकेशंस के माध्यम से बच्चों को परोस दी  जाती हैं। पहले स्कूल का होमवर्क करने के लिए दिमाग का इस्तेमाल होता था लेकिन अब इंटरनेट का उपयोग होता है। जिस वजह से इंसान की सोच का दायरा दिन-प्रति-दिन घटता जा रहा है तथा मोबाइल की स्क्रीन बड़ी होती जा रही है और खेल के मैदानों का आकार घटकर मोबाइल स्क्रीन जितना होता जा रहा है। आजकल के बच्चों के सोशल मीडिया के माध्यम से देश-विदेशों में कई दोस्त होते हैं लेकिन कई बार वह अपने परिवार के परिजनों को ही नहीं पहचानते। आजकल तो मोबाइल का जमाना है या टेक्नोलॉजी का जमाना है कहकर शायद कुछ मां-बाप अपने बच्चों को बचपन से ही इस टेक्नोलॉजी के अधीन कर देते हैं। टेक्नोलॉजी के क्या फायदे हैं व क्या नुकसान हैं यह जाने बिना बच्चे धड़ल्ले से इसका उपयोग करते हैं। आजकल बच्चों को कलम पकड़कर कॉपी में लिखना बाद में आता है इससे पहले टच स्क्रीन मोबाइल पर अपनी उंगलियां बखूबी चलाना खुद ही सीख लेते हैं।
              टेक्नॉलॉजी के फ़ायदे बेशक हर कोई जानता है और इसका उपयोग भी हर कोई करता है। पर बचपन में हर वक्त टेक्नोलॉजी को परोस देना गलत है। जिस कारण बच्चों के विकास पर सीधा असर पड़ता है। छोटे-छोटे बच्चे अपनी बात मनवाने के लिए चिड़चिड़े हो जाते हैं।  मोबाइल में वायलेंट गेम्स खेलकर धीरे-धीरे बच्चे भी वायलेंट होने लगते हैं। बचपन मानो गुम-सा होने लगता है। अधिकतर समय स्क्रीन के सामने रहने के कारण बचपन से ही मोटे-मोटे चश्मे लग जाते हैं। जो खेल हम हमारे बचपन में खेला करते थे वही सारे खेल आजकल के बच्चे लैपटॉप, मोबाइल और वीडियो गेम में खेलते हैं।
          इसमें गलती किसकी है दोस्तों? शायद, हमारी! हम बच्चों का नई टेक्नोलॉजी से तो परिचय करवाते तो हैं ही और नए वीडियो गेम भी लाकर देते हैं पर क्या कभी हमने बच्चों को हमारे बचपन में खेले हुए खेलों के बारे में बताया है? ज़रा याद कीजिए आखिरी बार आप अपने बच्चों के साथ कब खेले हैं? इस बार की गर्मी की छुट्टियों में अपने बच्चों के साथ घरों से बाहर निकलिए और अपने बचपन में खेले हुए खेल जैसे गिल्ली-डंडा, डब्बा-डाउन, लंगडी, पकड़म-पकड़ाई, छुपन-छुपाई, कंचे आदि इनसे परिचय कराइए फिर देखिए बच्चों को भी खूब मज़ा आएगा। टेक्नोलॉजी के द्वारा प्राप्त जानकारी से उनका मानसिक विकास तो हो रहा है परंतु शारीरिक विकास के लिए आउटडोर गेम खेलना भी आवश्यक है। तकनीकी विस्तार वैसे तो बेहद ज़रूरी है लेकिन क्या अपने स्वास्थ्य, भविष्य और चेतना को दांव पर रखकर? ज़रूरत से ज्यादा किसी भी वस्तु का उपयोग करना सभी दृष्टि से हानिकारक होता है। टेक्नोलॉजी का उपयोग अवश्य कीजिए अपने बच्चों को भी अवश्य सिखाइए परंतु इसका उचित उपयोग करना लाभकारी होगा। दोस्तों, टेक्नोलॉजी के चलते बच्चों का बचपन कहीं खो मत जाने दीजिए क्योंकि बचपन कभी लौटकर नहीं आता।

किसी ने खूब कहा है-

एक बचपन का जमाना था,
जिस में खुशियों का खजाना था।
चाहत चांद को पाने की थी,
पर दिल तितली का दिवाना था।
खबर नहीं थी कुछ सुबह की
ना शाम का ठिकाना था।
थककर आना स्कूल से,
पर खेलने भी जाना था।
मां की कहानी थी,
परियों का फसाना था।
बारिश में कागज की नाव थी,
हर मौसम सुहाना था।
रोने की वजह ना थी,
ना हंसने का बहाना था।
क्यों हो गए हम इतने बड़े,
इससे अच्छा तो वो बचपन का जमाना था।

Wednesday, 15 May 2019

नदी की आत्मकथा | Hindi

नदी की आत्मकथा

-सौ. भक्ति सौरभ खानवलकर



मैं प्रकृति के जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग हूं। मुझे अनेकों नाम से जाना जाता है जैसे- नहर, सरिता, प्रवाहिनी, तटिनी आदि। मेरा जन्म पर्वत मालाओं की गोद में हुआ है और नि:स्वार्थ भाव से जनकल्याण करते हुए मैं अंत में सागर में जा मिलती हूं। अपने जन्म से ही मैं बहुत चंचल हूं और निरंतर आगे बढ़ते रहना मेरा स्वभाव है। मुझे रोकना बिल्कुल असंभव है। मेरे रास्ते में कितनी भी रुकावटें आए मैं कभी नहीं रुकती और अपनी पूरी शक्ति को संचालित कर सभी रुकावटों को पार कर स्वयं अपना रास्ता निकाल कर बहती ही चली जाती हूं। पर्वत मालाओं से बहती हुई जब मैं झरनों के रूप में मैदानी भाग में आ पहुंचती हूं तो बहुत से गांवों और शहरों में खुशी और हरियाली छा जाती है। जहां-जहां से होकर मैं गुज़रती हूं वहां पर तट बन जाते हैं और आसपास छोटी-छोटी बस्तियां स्थापित होने लगती हैं। बस्तियां धीरे-धीरे गांव और शहर बनने लगते हैं जिनमें से कुछ सुंदर व दार्शनिक स्थलों के रूप में भी उभर कर आते हैं। मनुष्य व प्रकृति में रहने वाले सभी जीव एवं पेड़-पौधों के लिए मैं किसी वरदान से कम नहीं हूं।
मैं समाज और देश की खुशहाली के लिए अपना पूर्ण सहयोग देती रहती हुं। मुझ पर बांध बनाकर नहर निकाली जाती है। नहरों से मेरा जल दूर-दूर तक गांवो में पहुंचाया जाता है जिससे खेतों में सिंचाई की जाती है, जिसे घरेलू कामों में, पीने के लिए तथा कारखानों इत्यादि में उपयोग में लाया जाता है। मेरे जल से बिजली निर्माण भी किया जाता है। जिससे देश के कोन- कोने में रोशनी फैलती है। मैं पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, मनुष्य, खेत-खलियान और धरती पर समस्त प्राणियों की प्यास बुझाती हूं और उनके ताप को कम करके उन्हें जीवनदान देती हूं। इन्हीं कारणों से मेरी सरलता और सार्थकता सिद्ध होती है। मैं अनंत प्रकार के जल जीवों का घर भी हूं। मैं देश के विभिन्न स्थानों को एक दूसरे से जोड़ती हूं और इसी वजह से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने का एक साधन भी हूं।
मैं इस प्रकृति की खूबसूरत देन हूं फिर भी कुछ लोग हानिकारक पदार्थ व कचरा डालकर मुझे अशुद्ध करते हैं और मैं लोगों की इस बुराई को चुपचाप सहती रहती हूं। मैं कितनी भाग्यशाली हूं कि मेरे जल को भगवान की पूजा करने के लिए उपयोग में लाया जाता है। मनुष्य जाति द्वारा मेरी पूजा की जाती है व मुझे मां समान सम्मान दिया जाता है। गंगा, जमुना, सरस्वती, यमुना, ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, त्रिवेणी, गोदावरी आदि मेरे ही नाम हैं जिन्हें हिंदू धर्म में श्रेष्ठ मान कर पूजा की जाती है। फिर मनुष्य मां तुल्य नदी को प्रदूषित कर मेरा अपमान क्यों करता है? प्रत्येक मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह मेरा सम्मान करे तथा मुझे प्रदूषित होने से बचाए और सदैव स्वच्छ व सुंदर बनाए रखे ताकि मेरे निर्मल, पवित्र व शुद्ध जल से समस्त प्राणियों का कल्याण हो सके।

कल-कल करती मेरी निर्मल धारा,
देखो प्रकृति पथ पर बढ़ती जा रही।
ना कोई रोक सके पथ मेरा,
देखो चट्टानों को चीरती जा रही।
रुकना और थकना मुझे नहीं आता,
हर मुश्किल को पीछे छोड़ आगे बढ़ती जा रही।
हरा-भरा कर देती मैं नगर सारा,
प्राणियों का कल्याण कर मैं बहती जा रही।
मनुष्य क्यों तू है मेरा अपमान करता,
देख मैं कितनी अशुद्ध होती जा रही।
मेरे जल को रख तू पवित्र ना कर इसे गंदा,
देख ज़रा मैं तो श्री हरि के पग पखारते जा रही।



Friday, 10 May 2019

मदर्स डे | Hindi

मदर्स डे

-सौ. भक्ति सौरभ खानवलकर



          मदर्स डे का अर्थ है मां का दिन! सोचने में कुछ अजीब लगता है ना कि भला मां का कोई एक दिन कैसे हो सकता है? मां की संतान के लिए तो प्रत्येक दिवस, प्रत्येक घंटा, प्रत्येक मिनट व प्रत्येक पल मां का दिवस ही तो होता है। यह पाश्चात्य संस्कृति से आई हुई बातें है। पर खैर दोस्तों, मदर्स डे के दिन अपनी मां को हैप्पी मदर्स डे कहना या उनके लिए कोई तोहफा लाना यह सब तो आम है। यदि मां को कोई तोहफा ही देना है तो उनकी सिखाई गई हर बात को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करते रहना चाहिए। मां के दिए गए संस्कारों को ध्यान में रखकर व पिता के आदर्शों पर चल कर समाज में उनकी व अपनी पहचान बनाने की ओर अग्रसर होना चाहिए। जिस कारण से लोग उन्हें उनकी संतान के नाम से जाने इससे बड़ा तोहफा उनके जीवन में और कुछ हो सकता है क्या भला? मां जननी होती है। बिना किसी शिकायत वह अपनी संतान को नौ महीने अपने कोख में पालती है और इस संसार से उसका परिचय कराती है। वह करुणा है, ममता का अवतार है, प्रकृति की खूबसूरत देन है और ईश्वर का दूसरा रूप है। मां की ममता की कहानियां तो हमने कई सुनी है दोस्तों पर एक कहानी मैं आपसे साझा करना पसंद करूंगी।         कहानी कुछ इस प्रकार है- एक बेटा पढ़-लिख कर बहुत बड़ा आदमी बन गया। पिता के स्वर्गवास के बाद मां ने हर तरह का काम करके उसे इस काबिल बनाया। बेटे की शादी के बाद उसकी पत्नी को मां से शिकायते रहने लगी। लोगों को यह बताने में उन्हें संकोच होने लगा कि उनकी मां व सास अनपढ़ है। तभी एक दिन बेटे ने अपनी मां से कहा,"मां अब मैं इस काबिल हो गया हूं कि कोई भी कर्ज अदा कर सकता हूं और मैं चाहता हूं कि हम दोनों सुखी रहे इसलिए आज तुम मुझ पर किए गए अब तक के सारे खर्च सूत और ब्याज के साथ मिलाकर बता दो। मैं वह अदा कर दूंगा। फिर हम अलग-अलग अपना जीवन सुखी होकर व्यतीत करेंगे।" मां ने सोच कर उत्तर दिया,"बेटा हिसाब ज़रा लंबा है। सोच कर बताना पड़ेगा। थोड़ा वक्त चाहिए।" बेटे ने कहा,"मां कोई जल्दी नहीं है। दो-चार दिनों में बता देना।" रात हुई और सब सो गए। मां एक लोटे में पानी लेकर अपने बेटे के कमरे में गई। बेटा जहां सो रहा था उसके एक ओर पानी डाल दिया। बेटे ने करवट ले ली मां ने दूसरी ओर भी पानी डाल दिया। बेटे ने जिस ओर भी करवट ली मां उस ओर पानी डालती रही। तभी परेशान होकर बेटा उठा और खीज कर बोला कि,"मां यह क्या है? मेरे पूरे बिस्तर को पानी-पानी क्यूं कर डाला।" मां बोली,"बेटा तूने मुझसे पूरी जिंदगी का हिसाब बनाने को कहा था। मैं अभी यह हिसाब लगा ही रही थी कि मैंने कितनी रातें तेरे बचपन में तेरे बिस्तर गीला कर देने से जागते हुए काटी हैं। यह तो पहली रात है और तू अभी से घबरा गया। मैंने अभी हिसाब तो शुरू भी नहीं किया है जिसे तू अदा कर पाए।" मां की इस बात ने बेटे के ह्रदय को झकझोर कर रख दिया। फिर वह रात उसने सोचने में ही गुज़ार दी और उसे यह एहसास हो गया कि मां-बाप का कर्ज़ आजीवन नहीं उतारा जा सकता। वे जो भी अपनी संतान के लिए करते हैं वह नि:स्वार्थ भाव से करते हैं व बदले में अपनी संतान से सिर्फ थोड़ा सा मान-सम्मान व आदर मिले बस यही चाहते हैं।             पिता अगर बरगद है तो मां उनकी शीतल छाया है। जिसमें उनकी संतान उन्मुक्त भाव से जीवन बिताती है। मां अगर अपनी संतान के लिए हर दुख उठाने को तैयार रहती है, तो पिता सारे जीवन उसे खुश रखने के लिए, उसकी सारी ज़रूरतें पूरी करने के लिए खून-पसीना एक कर कमाते हैं। बच्चों को तो बस उनके किए गए कार्यों को आगे बढ़ाकर अपने व सब के हित में काम करते रहना चाहिए। आखिर हर कोई  अपने बच्चों से भी यही सब चाहता है ना? सभी माताओं को मदर्स डे की हार्दिक शुभकामनाएं। इस अवसर पर हर मां के लिए यह कुछ पंक्तियां- मां ममता रूपी सागर की मूर्ति है, तो संसार से परिचय कराने वाली जननी है। सूरज की पहली किरण है, तो कड़ी धूप में घनी छांव है। मां डांट और प्यार का खट्टा-मीठा मेल है, तो खुशियों के अनमोल खजा़ने की राह है। बेटा हो या बेटी उसकी संतान उसका गर्व है, मां है तो संपूर्ण संसार मानो जैसे स्वर्ग है।

Tuesday, 7 May 2019

रेस्टोरेंट: एक नया चलन | Hindi


रेस्टोरेंट: एक नया चलन


-सौ. भक्ति सौरभ खानवलकर



  

            दोस्तों, इस बढ़ती महंगाई के कारण आम इंसान की जेब हल्की होती जा रही है। तनख़्वाह ज्यों की त्यों है पर हर रोज महंगाई बढ़ती चली जा रही हैै। और इस महंगाई के ज़माने में इंसान के शौक भी बढ़ते जा रहे हैं। किसी को लग्ज़री चीज़ों का शौक है‌, तो किसी को हर वक्त शॉपिंग का। सच ही कहा है किसी ने -"इंसान को जो कुछ भी मिलता है वह उसे कम ही लगता है और वह‌ उससे अधिक पाने की कोशिश में ही लगा रहता है।" ख़ैर मनुष्य के शौक तो अपनी जगह पर हैं, पर दोस्तों आजकल एक नया ट्रेंड चल रहा है। घर में कोई फंक्शन हो, किसी का जन्मदिन हो, एनिवर्सरी हो या कोई भी खुशी का कारण हो या सिर्फ वीकेंड हो, रेस्टोरेंट में जाकर खाना खाने का ट्रेंड बढ़ता जा रहा है। जिसका सीधा-सीधा असर बढ़ती महंगाई के कारण इंसान की जेब पर भी पड़ रहा है। 
        आइए मैं आपको एक रोचक किस्सा बताती हूं। यह किस्सा रेस्टोरेंट्स में खाना खाने की आदत के बढ़ने के कारण लगभग सभी के साथ घटित होता है। आजकल इस बढ़ते ट्रेंड के कारण किसी भी रेस्टोरेंट में जाओ बहुत ही लंबी वेटिंग लाइन रहती है। किसी अच्छे रेस्टोरेंट पहुंचने के बाद रजिस्टर में अपना नाम लिखवाकर 45 मिनट से 1 घंटे की वेटिंग में ही इंसान की सारी भूख मिट जाती है। इतनी देर इंतजार करने के बाद जब मैनेजर आकर खाली टेबल की ओर ले जाता है तब थोड़ी सी जान में जान आती है कि चलो हमारा नंबर तो आया। 8-9 लोगों के हिसाब से टेबल थोड़ा छोटा है, पर जैसे-तैसे 2-3 एक्स्ट्रा कुर्सियां लगाकर सभी लोग एडजस्ट होकर बैठ जाते हैं। वेटर 4-5 मेनू कार्ड ला कर देता है। सब मिलकर सबसे पहले स्टार्ट डिसाइड करते हैं। वेटर ऑर्डर लेने आता है और सबसे पहला सवाल पूछता है मिनरल वाटर या नॉर्मल वॉटर? जिस की ओर से पार्टी होती है वह बड़ी ही उत्सुकता से सभी की ओर नज़र दौड़ाता है की कोई तपाक से बोल दे नॉर्मल वाटर परंतु किसी के कुछ भी ना कहने पर अपनी कॉलर ऊंची करने के लिए मिनरल वाटर ही कहता है। बाकी, दोनों पानी में कोई अंतर नहीं है यह सभी को पता होता है। पर हां, कीमत में काफी अंतर होता है! स्टार्टर टेबल पर आने के बाद टेबल पर उंगली रखने की जगह तक नहीं रहती और तो और इसकी मात्रा इतनी कम होती है कि छोटा-छोटा टुकड़ा सब की थाली में परोसा जाता है। सबकी पसंद का स्टार्टर मंगाने के बाद और उससे चखने के बाद भले ही मनपसंद स्वाद ना हो फिर भी बेमन से तारीफ़ करते हुए खाना पड़ता है। स्टार्टर खत्म होते ही वेटर फिर आकर खड़ा हो जाता है। मुस्कुराते हुए पूछता है सर मेन कोर्स? उससे थोड़ी आंखें चुराते हुए कहना पड़ता है भाई साहब कुछ वक्त बाद आइएगा फिर बताते हैं और दोबारा से मैन्यू कार्ड मंगवा कर मेन कोर्स डिसाइड किया जाता है। किसी को कुछ पसंद है तो किसी को कुछ और। मिली जुली भगत करके मैन्यू डिसाइड कर ऑर्डर दिया जाता है। मेन कोर्स लाने में इतनी देर लगाई जाती है कि स्टार्टर के प्लेट में बचे-कुचे टुकड़े भी बैठे-बैठे सफाचट हो जाते हैं और प्लटे इस तरह साफ हो जाती है कि मानो दोबारा से धुल के रखी हो। जब भी किसी वेटर को अपनी टेबल की ओर खाना लाते हुए देखो तो बस मन में यही ख्याल आता है कि चलो हमारा खाना आ गया। पर वो कभी दाएं तो कभी बाएं मुड़ कर किसी और की टेबल पर जाकर खाना परोस देता है। आपस में गप्पों का दौर और बातचीत चल रही होती हैं उतने में ही पास की टेबल से बड़ी ज़ोर से हंसी ठिठोली करने की आवाज़ आती है। सभी का ध्यान वहां जाता है और टेबल पर हो रहे गप्पों में खलल पड़ता है। दूसरी तरफ भूख के कारण पेट में चूहे दौड़ रहे हैं। जिस कारण मन ही मन यह सोच बहुत गुस्सा आ रहा होता है कि वेटिंग में 1 घंटे का इंतजार किया और अब खाना आने में 1 घंटे का इंतजार। आसपास होने वाली बिना मतलब की हंसी-ठिठोली और बची-कुची कसर बैकग्राउंड में लगे कुछ अजीब सा म्यूज़िक पूरी कर देता है। इतना सब झेलते हुए भी सब के साथ मुस्कुराते हुए बैठना पड़ता है। टेबल पर बैठे लोगों में से अचानक किसी एक को याद आता है की गर्मी हो रही है। मैनेजर को बुलाकर ऐ.सी. बढ़ाया जाता है लेकिन कोई असर नहीं होता। जिसने ऐ.सी. का टेंपरेचर बढ़वाया होता है वह मुस्कुराते हुए और अपने मन को समझाते हुए कहता है," शायद भीड़ ज्यादा है ना"! ख़ैर, काफी देर के इंतजार के बाद खाना टेबल पर लग जाता है। बातचीत करते हुए खाने का आनंद लेते हुए खाना खत्म होता है। आखिर में वेटर आकर पूछता है, "सर राइस?" तभी कुछ लोग कहते हैं, "हां भाई हाफ प्लेट राइस ले आइएगा।" राइस आने के बाद याद आता है कि राइस के साथ खाने के लिए दाल भी खत्म हो गई है। फिर से एक प्लेट दाल का आर्डर दिया जाता है और राइस खत्म होते-होते दाल आती है। जो बाद में आधी भी खत्म नहीं हो पाती और बची-कुची दाल पैक कराने के लिए दे दी जाती है। छोटी-सी कटोरी में चुल्लू भर पानी वह भी कहने को गुनगुना और एक नींबू के छोटे-से स्लाइस डला हुआ फिंगर बाउल सबके सामने रख दिया जाता है। इतना छोटा-सा होता है कि जैसे-तैसे उस में हाथ डालकर हाथ साफ कर ही रहे होते हैं, तभी वेटर फिर से आकर मुस्कुराते हुए पूछता है,"डेज़र्ट में कुछ लेंगे सर?" गर्मी को ध्यान में रखकर आइसक्रीम मंगवाई जाती है। बाहर अच्छे आइसक्रीम पार्लर में मिलने वाली आइसक्रीम से भी ज़्यादा कीमत की मंगवाने के बाद बिल कुछ कुल जमा के लगभग 2500 से 3000 रुपय तक आता है। और-तो-और यदि कुछ खाना पैक करवाया है तो डब्बे का भी बिल में चार्ज लगाया जाता है। बिल चुकाने के बाद बारी आती है वेटर को टिप देने की। इतने बड़े होटल में सब के साथ आए हैं 10-20 रुपए से तो काम नहीं चलेगा ना? कॉलर ऊंची जो रखनी है! इसलिए कम-से-कम 50 रुपए की टिप वेटर को दी जाती है। खर्चा यहीं नहीं रुकता। बाहर निकलने पर गाड़ी पार्क करवाने के लिए, इतनी देर गाड़ी का ध्यान रखने के लिए "जी साहब जी" करके बॉडीगार्ड आस लगाए देखता है। उसे भी 20- 30 रूपए की टिप दी जाती हैं। कुल जमा कर खर्चा आप तो जोड़ी लेंगे ना? 
         पर कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे हैं कि मैं आपको यह सब क्यों बता रही हूं? मैं जो बता रही हूं इन बातों पर यदि गौर फरमाएं और खुद से ही यह सवाल पूछें कि, होटल में जो खाना खाया जाता है क्या वाकई उसका मूल्यांकन सही होता है? किस पद्धति से बनाया जाता है? वह कितना शुद्ध है? यह जाने बिना ऐसे खाने को कुछ ही मिनटों में चट कर दिया जाता है। इतना खर्च करने के बाद अंत में क्या मिलता है? रात में होने वाली एसिडिटी, पेट दर्द या कभी कहीं पर कुछ खराब खा लेने से फूड पॅाइज़निंग और अनावश्यक खर्च। मैं रेस्टोरेंट में खाना खाने के खिलाफ नहीं हूं पर अत्यधिक बाहर का खाना खाने के अपने कई नुकसान भी हैं ऐसा मेरा मानना है। इससे अच्छा तो दोस्तों यदि सब मिलकर रेस्टोरेंट जाने की जगह किसी पिकनिक स्पॉट पर प्रकृति के सौंदर्य के बीच अपने-अपने घर से स्वादिष्ट पकवान बना कर लाएं और साथ बैठकर उस का आनंद उठाएं। जिससे आपसी मेलजोल, मित्रों व रिश्तेदारों के साथ आपसी संबंधों में मधुरता और अधिक बढ़ेगी। प्राकृतिक सौंदर्य के बीच जाकर इंसान प्रकृति के करीब भी पहुंचेगा और घर के बने शुद्ध एवं स्वादिष्ट पकवानों का आनंद भी ले पाएगा। निवांत बैठकर गप्पे और बातचीत कर पाएगा और अपनों के साथ अधिक समय व्यतीत कर सकेगा। 
'यदि इंसान की सोच सही हो, तो उसकी लाइफ भी सही ही होती है।'